भूख का वेग
इसे रोकने से शरीर दुर्बल होने लगता है और रक्त की कमी हो जाती है । फलस्वरुप, व्यक्ति को चक्कर और मूच्र्छा आने लगती है ।
प्यास का वेग
प्यास लगने पर पानी न पीने से थकावट, ह्रदय से पीड़ा, मुंह और गले का सूखना, चक्कर जाना आदि कष्ट हो सकते हैं ।
आंसुओं का वेग
दुःख पड़ने पर आंसुओं और रुदन के वेग को रोकने से जुकाम, सिर में भारीपन, अनिद्रा, गहन उदासी, नेत्र रोग और ह्रदय के रोग तक हो सकते हैं ।
नींद का वेग
इसे रोकने से आंखों में जलन, सिर में भारीपन, सिर दर्द, अपच आदि रोग हो जाते हैं ।
सांस का वेग
व्यायाम अथवा परिश्रम करने पर सांस का वेग बढ़ जाता है ताकि शरीर की बढ़ती हुई आॅक्सीज़न की आवश्यकता पूरी हो सके । इस वेग को रोकने से घबराहट, हृदय की पीड़ा तथा मूर्छा रोगों में से किसी एक के होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है ।
खांसी का वेग
खांसी आने पर उसे अंदर ही अंदर रोकने से दमा, सीने से दर्द तथा गले से संबंधित अन्य रोग हो सकते हैं । यही नहीं, खांसी को रोकने से वह प्रचंड रूप भी धारण कर सकती है ।
छींक का वेग
आधा सिर का दर्द, सिर में भारीपन, चेहरे का फालिज आदि रोग छींक के वेग को रोकने के दुष्परिणाम स्वरुप हो सकते हैं ।
मूत्र का वेग
मूत्र का वेग अनुभव होने पर उसे काफी समय तक रोकने से पेशाब आने में रुकावट, मूत्राशय और लिंग से शूल होना, पेट के निचले माग से सूजन आदि रोग हो सकते हैं ।
मल का वेग
अपान वायु (पाद) का रुक जाना, पक्वाशय और सिर में दर्द, कब्ज, पिण्डलियों में ऐंठन आदि रोग शौच के वेग को रोकने के परिणाम स्वरुप हो सकते हैं।
अपान वायु का वेग
पाद आने को अपान वायु का वेग कहते हैं । इसे रोकने से वात (वायु) संबंधी रोग, पेट दर्द, पेट फूलना, मूत्र तथा मल बाहर निकलने से रुकावट के कष्ट हो जाते है ।
वीर्य निकलने का वेग
कामोत्तेजना की चरम सीसा पर जब वीर्य अपने स्थान को छोड़ देता है तो उसे रोकने से अनेक प्रकार के रोग हो सकते हैं । आयुर्वेद के अनुसार, इन रोगों में पौरुष ग्रंथि, अंडकोश, शुक्रप्रणाली और शुक्राशय से सूजन, गुदा में पीडा, पेशाब से रुकावट आदि शामिल हैं ।
वमन (कै) का वेग
इसे रोकने पर दाद, सूजन, ज्वर, जी मिचलाना वा भोजन से अरूचि आदि रोग हो जाते हैं ।
जम्भाई का वेग
इस वेग को रोकने के परिणाम स्वरूप शारीरिक अंगों में सिकुड़न, हाथ-पैरों में कंपन या शरीर में भारीपन होने के लक्षण प्रकट होते है ।
डकार का वेग
डकार जाने की अनुभूति होते ही उसे रोकने पर हिचकी, छाती से जकड़न, सांस से कष्ट और भोजन में अरुचि हो जाती है ।
उपर्युक्त सभी शारीरिक वेग इतने तीव्र होते है कि उन्हें रोकना बहुत कठिन होता है । इन वेगों की क्रियाएं हमारे शरीर की स्वाभाविक रूप से स्वतः होने वाली आंतरिक प्रणाली से जुडी होती हैं । इनका संबंध हमारे अवचेतन से होता है, फिर भी मनुष्य सभ्यता और शिष्टता के अप्राकृतिक सामाजिक नियमों अथवा अन्य कारणों से इन वेगों को रोकने का प्रयत्न करता है । इसका दुष्परिणाम यह होता है कि वह अन्य कष्टदायक रोगों से पीड़ित हो जाता है । अत: इन प्राकृतिक वेगों को जहां तक संभव हो, कभी नहीं रोकना चाहिए ।